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ثم ماذا يا عزيزي؟
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ثم ماذا يا عزيزي |
| هل أتاكَ ما تُريد؟ | هل بقى في القلبِ ثقةٌ |
| أو أمانٌ من حديد؟ |
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| ثم ماذا بعد مُلكِك |
| أو نفوذَك أو غِناك؟ | هل تُرى يبقى لديكَ |
| ما يضيعُ من سِواك؟ |
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| ثم ماذا بعد سَعْيك؟ |
| بعد طمعك في هواك؟ | هل ستأخذ منها شيئًا؟ |
| هل سيُغني عن هلاك؟ |
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| هل تنادي بإيمانك؟ |
| هل تُغنِّي بِكمالك؟ | أيها المدعوّ “مؤمن” |
| أين خوفك من إلهك؟ |
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| هل تصدق في وجوده؟ |
| هل تنادي بعظمِ جوده؟ | ليس للإيمان قولٌ |
| إنما الفعلُ يقوده |
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| يا عزيزي الكُلُّ ماضٍ |
| إنما البِرُّ سيبقَى | ليس من شيءٍ سيشفَعُ |
| في ضميرٍ ليس يَرقَى |
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| هل تعيشُ في أمانٍ |
| بعدما سقَطَ الأعادي | هل تَظُنُّ الدَّربَ آمن |
| حين تتقطع أيادي |
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| يا شقي لست تعلم |
| بغتةً يأتي سقوطُك | مما صنعته يَداكَ |
| بل وبشرطٍ من شروطِك |
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| اتَّقِ اللهَ فَليسَ |
| مِن أمانٍ فِي سِواه | فهو للمسكين ملجأ |
| ليس من ضامن سواه |
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